Wednesday, February 15, 2012

मुझे अगर पानी बना ढाल दिया जाता परातों में

दिन भर की मजूरी की थकान
उनकी पोर-पोर में भरी है
सामने परात में भरा पानी
एक गर्वीली मुस्कान के साथ उसे छू रहा है
और वे अपने पाँव धोते हुए उसे उपकृत कर रही हैं

वे अपने पाँव की उँगलियों में पहनी चिटकी को
बड़े जतन से साफ कर रही हैं
मानो कोई सिद्धहस्त मिस्त्री साफ-सफाई करके
किसी बैरिंग में बस ऑइल और ग्रीस डालने वाला है
जिसके बल ये पाँव अभी गति करने लगेंगे

एक दूसरे से बतियाती व अपने पंजे साफ करती
वे टखनों की तरफ बढ़ती हैं
उसके बाद पिंडलियों पर आए
सीमेंट-गारे के छींटों से निपटने के लिए अपना लँहगा कुछ उठाती हैं
और अभी-अभी उड़ान भरने के लिए उठे बगुले के पंखों के नीचे बने उजाले सा रोशन कर देती हैं
कस्बे की उस पूरी की पूरी गली को
जहाँ यह दृश्य घट रहा है

मुझे अगर पानी बना ढाल दिया जाता परातों में
तो मैं भी कोशिश करता
उन पिंडलियों में भरी थकान को धो डालने की