Monday, August 15, 2011

चप्पलें



इन गुलाबी चप्पलों पर
ठीक जहाँ तुम्हारी ऐड़ी रखने में आती है
वहां उनका अक्स इस तरह बन गया है मेरी जान
कि अब चप्पल में चप्पल कम और तुम्हारी एड़ियाँ ज्या‍दा नज़र आती हैं

घिसकर तिरछे हुए सोल में
जीवन की चढ़ाई इस कदर उभर आई है
फिर भी तुम हो कि जाने कितनी बार
चढ़कर उतर आती हो

रात तनियों के मस्तूल से अपनी नावें बाँध सुस्ताती हैं चप्‍पलें
और दरवाजे के बाहर चुपचाप लेटी
थककर सोए तुम्हारे पैरों का पता देती हैं

3 comments:

  1. kitni sookshm aunbhooti hai ye .. रात तनियों के मस्तूल से अपनी नावें बाँध सुस्ताती हैं चप्‍पलें
    और दरवाजे के बाहर चुपचाप लेटी
    थककर सोए तुम्हारे पैरों का पता देती हैं..
    meri jaan sambodhan ise aur adhik roomani bana deta hai.. ek mukkamal prem me aakanthh doobi hui kavita

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  2. क्या बात है, चप्पलों में यह रस मिल रहा है।

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  3. वाह, कितनी परिचित मगर कितनी अजनबी अनुभूति को आपने शब्द दिए हैं प्रमोद जी, बधाई और आभार...

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