कहे मुताबिक
मैं सब चीजों को बाहर छोड़ आया हूँ
अपनी याद को पत्तों के बीच रख आया हूँ
तुम उनके नीचे से गुज़रोगी छूते हुए
तो ओस की बूँदें तुम्हारी हथेलियों को नम कर देंगी
बस!
अपनी चाहत को सोंप आया हूँ सितारों को
किसी अँधेरी रात में एक बार उठा दोगी अपनी नज़र आसमान की तरफ
तो चमकीली लकीर बनाती एक उल्का बढ़ेगी तुम्हारे पाँवों की ओर
उन्हें चूमने की अधूरी इच्छा लिए
बेचैनी मैं अपनी धरती को सोंप आया
और छोड़ दिया उसे घूमने के लिए चौबीसों घंटे
ताकि वह खयाल रख सके इस बात का
कि दिन के समय दिन हो और रात के समय रात
मैंने सपनों से कह दिया
कि ढूँढ़ लें अब कोई और नींद की नदी
वहीं जाकर तैराएँ अपनी कागज की नाव
इस दरिया में अब पानी कम हुआ जाता है
सबने मेरी बात मान ली
मगर सपने अड़े हैं
कहते हैं - हम यहाँ के आदिवासी
इसी किनारे रहेंगे
चाहे जो हो !
Monday, January 16, 2012
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Behad hi sundar kavita :)
ReplyDeleteचलेगी तो सपनों की ही. अच्छी कविता है.
ReplyDeleteसपनों पर किसका जोर चला है, जो कहते है अन्ततः वही मानना पड़ता है।
ReplyDeleteआप सबका बहुत-बहुत शुक्रिया.
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