गंगा के उस घाट की सीढ़ियों पर
वे पानी में पाँव डाले बैठे थे
इससे फर्क नहीं पड़ता
कि वह घाट ऋषिकेश का था या हरिद्वार का
बनारस का था या इलाहबाद का
खास बात यह थी कि
आसमान के चाँद का अक्स उस पानी में हिल रहा था
और उसकी चाँदनी उस शाम उसकी पिण्डलियों से फूट रही थी
पानी उस चाँदनी को छूता हुआ उसकी ओर बहा आता था
इस तरह आज धरती हल्की सी उसकी ओर झुकी थी
जिसके लिए वह धरती का शुक्रगुज़ार था
उस हल्के से ढलान में बैठकर उसका मन
ऊन के उस गोले की तरह लुढ़क जाने को कर रहा था
जिसे लुढ़कते चले जाने के बावजूद
दूसरी ओर दो हाथ थामे रहते हैं हरदम
और इस तरह मन ही मन लुढ़कता हुआ
वह अपने ही वजन से हल्का हुआ जाता था
(प्रतिलिपि में प्रकाशित)
Friday, May 21, 2010
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चमत्कारिक ,
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