Thursday, November 25, 2010

एक और बहाना

तुम्हारी आँखों की इस रात में
जो सितारे चमकते हैं
हर रात उन्हें मेरे घर का हरसिंगार चुरा लाता है

मैं रात देर तक उसके नीचे खड़ा तुम्हारी खुश्बू लेता हूँ
और अलसुबह उन्हें बीन लाता हूँ
तुम्हें फिर से लौटाने के लिए

इस तरह मैं तुमसे मिलने और उस सितारों भरी रात को महसूसने का
एक और बहाना उठा लाता हूँ

Friday, October 15, 2010

एक स्त्री , जो तुम थीं

मुझे मालूम नहीं था
मैं किसके प्रेम में मारा जाऊँगा
इस शहर, हवा, इन पेड़ों में से किसके
नहीं मालूम था, इनमें कौन एक स्त्री बनकर आएगा
और भर लेगा अपनी बाँहों में
कौन अपने मेघाच्छादित केशों के पर्दे में छुपा लेगा मुझे
कौन अपने प्यारे दुपट्टे की तरह सीने से लगा लेगा मुझे
नहीं मालूम था, कौन

मैं शहर, हवा और पेड़ से आती हुई एक स्त्री की कल्पना में
गुजरता रहा साल दर साल

और तभी तुम आईं

तुम आईं तो इस शहर में भटकने का साथ मिला
और इस तरह तुमने मुझे इस शहर का प्रेम दिया
तुम आईं तो मुझे तुम्हारी गंध मिली
और इस तरह तुमने मुझे इस हवा का प्यार दिया
तुम्हारे ही साथ गुजरकर मैंने पाया इन पेड़ों के घनेपन से गुजरने का सुख
और इस तरह तुमने मुझे इन पेड़ों का अहसास दिया

इस तरह
मैं मारा गया एक स्त्री के प्यार में जो शहर, हवा और पेड़
सब कुछ एक साथ थी
एक स्त्री
जो तुम थीं

Sunday, October 3, 2010

तुम्हारा दिल मैं अपने साथ ले आता हूँ

(ई. ई. कमिंग की कविता- 'आई कैरी योर हार्ट विद मी')

तुम्हारा दिल मैं अपने साथ ले आता हूँ
मेरी जान (मैं अपने दिल में छुपाकर इसे ले आता हूँ)
मैं कभी इसके बिना नहीं होता (ओ प्रिय मैं जहाँ जाता हूँ तुम भी जाती हो,
मुझसे जो भी होता है वो तुम ही तो करती हो)
मैं नहीं घबराता
नसीब से (प्यारी तुम ही तो हो मेरा नसीब) मुझे नहीं चाहिए
ये दुनिया (तुम ही तो हो मेरी सुन्दर दुनिया, मेरा सच तुम ही हो)
चाँद ने जो कुछ भी कहा वो तुम ही हो
सूरज जो भी गाएगा वो तुम ही हो

इसमें एक गहरा राज है जिसे कोई नहीं जानता
(आत्मा या मन से भी तेज बढ़ने वाले जीवन नामक इस पेड़
की जड़ से निकली जड़, कली से निकली कली और आकाश से निकला आकाश
या तो उम्मीद कर सकता है या छुपा सकता है) और यही आश्चर्य सितारों को एक-दूसरे से अलग किए रहता है

तुम्हारा दिल मैं ले आता हूँ (मैं अपने दिल में छुपाकर इसे ले आता हूँ)

(अनुवाद : प्रमोद)

Friday, August 20, 2010

इच्छा़

तुम बैठो कुर्सी पर आराम से टेक लगाकर
मैं बैठूँ पैरों के पास
और अपना सिर तुम्हारे घुटनों पर रख लूँ

तुम्हारे घुटने जिस रोशनी से चमकते हैं
मैं उस तिलिस्म को चूम लूँ
मैं उन पाँवों को चूम लूँ
जिन पर तुम्हारी यह प्यारी ताम्बई देह थमी है

लाख के लाल कनफूल और हरा कुर्ता पहने
तुम मुझ पर झुको गुलमोहर बनकर
और मैं एक बच्चे की तरह उचक कर तुम्हारे फूलों को चूम लूँ

इस अड़तीसवें साल में
बस, बस इतनी सी इच्छा रखता हूँ

Saturday, August 7, 2010

जूड़ा

हवा में अँगड़ाई लेती तुम्हारी कलाइयाँ
रचती हैं एक कला
बाँधती हैं कोमल अँधेरे वलय में
मेरे प्यार, मेरी इच्छाओं को

धीरे-धीरे खुलती जाती है
तुम्हा्री गर्दन के नाजुक हल्के झटकों से
जूड़े की ढीली गाँठ
और बह निकलता है
स्याह रेशमी धार का प्रपात

मेरा मन है कि इस झरने के
ठीक नीचे जाकर लेटूँ
और यह ढाँप ले मुझे प्यार और इच्छा के
इस कोमल अँधेरे में

Wednesday, August 4, 2010

ज़ि‍न्दगी खूबसूरत है

(लैंग्संटन ह्यूजे़ज की कविता-'लाइफ इज़ फाइन')

मैं नदी पर गया
किनारे बैठा
और सोचना चाहा पर नहीं सोच पाया
तब कूदा और डूबने लगा

मैं एक बार ऊपर आया और चिल्लाया
दो बार ऊपर आया और चीखा
जो अगर वह पानी इतना ठंडा ना होता
तो मैं डूबकर मर गया होता

मगर यह ठंडा था बहुत ठंडा था

मैंने लिफ्ट ली
और सोलवें माले पहुँचा
अपने बच्चे के बारे में सोचा
और सोचा नीचे कूदने के बारे में

मैं वहाँ खड़ा होकर चिल्लाया
मैं वहाँ खड़ा होकर चीखा
जो अगर यह इतना ऊँचा ना होता
तो मैं कूदकर मर गया होता

मगर यह ऊँचा था बहुत ऊँचा था

तो मैं अब भी जीवित हूँ
मेरा अन्दाजा है मैं जीवित रहूँगा
मैं प्यार के लिए मर गया होता
मगर मैं जन्मा था जीवन के लिए

हालाँकि तुमने मुझे चिल्लाते सुना होगा
और देखा होगा चीखते हुए
मेरे प्यारे बच्चे
जो तुम मुझे मृत देखना चाहते हो
तो मुझे बहुत जिद्दी होना होगा क्योंकि

ज़ि‍न्दगी खूबसूरत है शराब सी खूबसूरत, खूबसूरत, खूबसूरत

(अनुवाद : प्रमोद)

स्पर्श

(ऑक्तादवियो पाज़ की कविता-'टच')

मेरे हाथ
खोलते हैं तुम्हारे अस्तित्व के पर्दों को
पहनाते हैं तुम्हें और अधिक नग्नता की पौषाक
उघाड़ते हैं तुम्हारी देह की कायाओं को

मेरे हाथ
रचते हैं तुम्हा्री देह के लिए दूसरी देह

(अनुवाद : प्रमोद)

Tuesday, July 13, 2010

ओक में पानी की इच्छा

उसकी इच्छाओं में मानसून था
और मेरी पीठ पर घास उगी थी

मेरी पीठ के ढलान में जो चश्मे हैं
उनमें उसी की छुअन का पानी चमक रहा है
इस उमस में पानी से
उसकी याद की सीलन भरी गंध उठ रही है

मेरे मन की उँगलियों ने इक ओक रची है
इस ओक में पानी की इच्छा है

मैं उस मिट्टी को चूमना चाहता हूँ
जिससे सौंधी गंध उठ रही है
और जिसने गढ़े हैं उसके होठों के किनारे

Saturday, July 3, 2010

तुम्हारे लिए चाय बनाता हूँ

मेरे इन कंधों को
खूंटियों की तरह इस्तेमाल करो
स्पर्श, आलिंगन और चुंबन जैसी ताजा तरकारियों भरा
प्यार का थैला इन पर टाँग दो
अपनी देह की छतरी समेटो और गर्दन के सहारे यहाँ टाँग दो
मेरी गोद में सिर रख कर लेटो या पेट की मसनद लगाओ
आओ मेरी इस देह की बैठक में बैठो, कुछ सुस्ताओ
तुम्हारे लिए चाय बनाता हूँ

Saturday, June 12, 2010

मुझे एक बछडे़ की तरह प्यार करो

ओ प्रिय !
मेरी एड़ियाँ इतनी मजबूत नहीं कि तुम्हारा सामना कर सकूँ
ना ही पंजों में इतना बल कि तुमसे भाग सकूँ

मैं बेबस हूँ
तुम्हारा ठिठका हुआ हिरनोटा

मेरी गर्दन को सहलाओ
मुझे एक बछड़े की तरह प्यार करो
मेरी पीठ के अंतिम छोर तक अपना हाथ फिराओ
मैं आँखें मूँद अपना मुँह
तुम्हारे कंधे पर ठीक उस जगह टिका लेना चाहता हूँ
जहाँ तुम्हारे रंग की रोशनी फूट रही है
(प्रतिलिपि में प्रकाशित)

Wednesday, June 2, 2010

तिल

कैप्री और डीप गले की स्लीव-लैस शॉर्ट कुर्ती में
अलसाई आँखों के साथ
वह
रात ज्या दा पी लेने से सुबह तक बचे रह गए नशे सी मादक लग रही है
कहीं दूर मद्धिम चमकते लाल तारे सा
उसके होठों में सुबह की पहली सिगरेट का फूल खिल रहा है

पैर समेट घुटने वक्ष में छुपाए कुर्सी पर इस तरह बैठने से
उसकी बाँई पिंडली में पंचम का उजला टेढ़ा चाँद उभर रहा है
जो धुँए के बादलों में थोड़ा उदास लग रहा है
फिर भी उस पर बना तिल ना जाने क्यूँ उसे चिढ़ा रहा है

गोया कि सामने बैठा वह
अपनी नज़रों की उँगलियों से उसे छूकर सहला रहा है
और अपने पोरों पर सेमल के तकिए का उभार महसूस कर रहा है
उस उभार में मुँह धँसाकर
उसका रोने को जी चाह रहा है

मोबाइल इस तंद्रा को तोड़ता है
मुँह में भरे कश के साथ वह उठती है
फोन पर बात करते हुए मुँह से बादल झर रहे हैं
जिनसे वैसे तिलों की बारिश हो रही है
और वह बैठा उस बारिश में भीग रहा है
अपनी बाँह के तिल में उस तिल की शिनाख्त करता हुआ

(पेंटिंग शिव की यानी शिवकुमार गाँधी की है)

Friday, May 21, 2010

एक शाम गंगा का किनारा

गंगा के उस घाट की सीढ़ियों पर
वे पानी में पाँव डाले बैठे थे
इससे फर्क नहीं पड़ता
कि वह घाट ऋषिकेश का था या हरिद्वार का
बनारस का था या इलाहबाद का

खास बात यह थी कि
आसमान के चाँद का अक्स उस पानी में हिल रहा था
और उसकी चाँदनी उस शाम उसकी पिण्डलियों से फूट रही थी
पानी उस चाँदनी को छूता हुआ उसकी ओर बहा आता था
इस तरह आज धरती हल्की सी उसकी ओर झुकी थी
जिसके लिए वह धरती का शुक्रगुज़ार था
उस हल्के से ढलान में बैठकर उसका मन
ऊन के उस गोले की तरह लुढ़क जाने को कर रहा था
जिसे लुढ़कते चले जाने के बावजूद
दूसरी ओर दो हाथ थामे रहते हैं हरदम

और इस तरह मन ही मन लुढ़कता हुआ
वह अपने ही वजन से हल्का हुआ जाता था

(प्रतिलिपि में प्रकाशित)

Sunday, May 16, 2010

समंदर के सपनों में चाँद

इतनी दूर से चलकर आई हो
मेरी नींद में

आओ बैठो
स्पर्श के इस गुलमोहर के नीचे
तुम्हारे लिए सपनों की दरी बिछाई है
जूड़े की पिन ढीली करो
और जरा आराम से बैठो

ऐसा लग रहा है
जैसे आज समंदर के सपनों में
चाँद उससे मिलने आया है

वो रंग

होली की रात
चाँद उतरा
ऐन बाखर के नीम के पार
फिर लटक कर झूला
उसकी सबसे ऊँची डाल से
पास ही एक मोर बैठा था
बहुत शर्माया सा
बहुत से रंग लेकर आया साथ
चाँद कुछ मूड में था

रंगों के उस खेल में
फिर खूब रँगा मोर को
मोर ने फिर चाँद को
उस दिन ऐसी यारी हुई
कि मोर ने बनवा लिए चाँद अपने पंखों पर
और चाँद ने गुदवा लिया मोर
अपने ही गाल पर

वो रंग ऐसा चढ़ा कि
अब छूटता नहीं
हर पूनम को याद कर होली
चाँद निकल पड़ता है नहाने समंदर की ओर
और मल मलकर ऐसा नहाना शुरू करता है
कि खुद ही घिसता जाता है
और बारिशों में हर बादल को देख
मोर पुकार पुकार कर कहता है
मेह आओ मेह आओ
मेरा रंग छुड़ाओ
मगर वो रंग है कि
अब छूटता ही नहीं

ऐ मेरी दोस्त !

छुअन में वो गर्माहट लिए
जहाँ से प्यार शुरू होता है

ऐ मेरी दोस्त !
तुम्हारी हथेलियाँ
अब भी महसूस होती हैं
अपनी गर्दन पर

तुम्हारे जूड़े का वो जिद्दी बाल
जो मेरे कंधे पर उतर आया था

ठीक वैसे ही
डायरी में रखा है
बचपन में किताबों में
जैसे पंख रखे रहते थे

इसे दोस्ती कहो या प्यार
वो पंख सा कोमल तुम्हारा बाल
तुम्हारी जूड़े की पिन सा
अब भी खुबा है
मुझमें