Monday, July 4, 2011

इस प्यास को मुझसे यह रात उधार ले जाती है

मैं केलू की ढँलवाँ छत हूँ
जिस पर ढल-ढलकर बहती रहती हो बारिश के पानी की तरह याद बनकर तुम
देर तक बची रहती है उसकी सीलन मेरे खपरैलों में
किसी भी टुकड़े को सूँघो तो बस वही एक महक उठती है पानी की
गले के नीचे एक प्या़स जगाती हुई

इस प्यास को मुझसे हर रोज यह रात उधार ले जाती है
और जगाती है प्यार में डूबे लोगों के भीतर
और भोर अपनी पीठ की ढलान पर उगाती है सुर्ख केलू के रंग की ढँलवाँ छत
रात से किए प्यार की याद में