Thursday, June 2, 2011

वह

उसका चेहरा एक शिलालेख था
जिस पर झुर्रियों की लिपि में उभरी थी
पचहत्तर-अस्सी सालों की कथा
इस‍ लिपी को घर व आसपास के बहुत कम लोग बाँच पाते थे
बस कुछ बच्चों के पास ही वह हुनर बचा था
जो बढ़ती उम्र में ना जाने कब उनका साथ छोड़ सकता था

उसकी चोटी में सरकंडे का एक फूल उग आया था
और अपने लँहगे की कलियों में वह समंदर की लहरें उठाए चलती थी
उसके पोपले मुँह में बहता था इस दुनिया की सबसे मीठी नदी का पानी
हाथ के डंडे से कभी कभी आसमान में टँगी सितारों की घंटियों को हिला दिया करती थी
जिनसे आवाज फिर सारी रात रोशनी बनकर बरसती थी

उसे ना जाने कब इतिहास के किसी ऐसे शिलाखण्ड में तब्‍दील हो जाना पड़ सकता था
जिसकी लिपि को अभी बाँचा जाना बाकी था